Uttarakhand: वसुंधरा ग्लेशियर झील, हिमालय में ग्लेशियरों के पिघलने से बढ़ रहा खतरा
Uttarakhand: हिमालय, जो प्रकृति और जलवायु को संजोने का काम करता है, अब वैश्विक तापन के कारण संकट का सामना कर रहा है। मौसम परिवर्तन के कारण ग्लेशियर पीछे हट रहे हैं, जिसके कारण वसुंधरा ग्लेशियर जैसी झीलों का आकार दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। इस बढ़ते खतरे ने राज्य के साथ-साथ राष्ट्रीय स्तर पर भी चिंता का विषय बना दिया है। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (ISRO) द्वारा जारी किए गए एक रिपोर्ट में इस समस्या को और गंभीर बताया गया है, जिसमें कहा गया है कि यदि इन झीलों का पानी झील की दीवारें टूटने से बाहर निकलता है तो वह केदारनाथ जैसी आपदा का कारण बन सकता है।
ग्लेशियरों का पिघलना और झीलों का आकार बढ़ना
ग्लेशियरों के पिघलने के कारण हिमालयी क्षेत्र में छोटे-बड़े 1400 से अधिक ग्लेशियर हैं, जिनमें से 1266 झीलों का आकार 500 वर्ग मीटर से ज्यादा है। ISRO और ADC फाउंडेशन की संयुक्त रिपोर्ट के अनुसार, हिमालय में ग्लेशियरों का तेजी से पिघलना जारी है। इस बदलाव के कारण, इन झीलों का आकार निरंतर बढ़ रहा है। खासकर वसुंधरा झील, जो चमोली जिले के ढौली गंगा बेसिन में स्थित है, इसका आकार अत्यधिक बढ़ गया है और यह खतरनाक स्तर पर पहुंच चुका है।
वसुंधरा झील का आकार 1968 में 0.14 वर्ग किलोमीटर था, जो 2021 में बढ़कर 0.59 वर्ग किलोमीटर हो गया है, यानी पिछले 53 वर्षों में इसका आकार लगभग 421.42 प्रतिशत बढ़ा है। साथ ही, इस झील में पानी की मात्रा भी बढ़ी है। 1968 में इस झील में करीब 21 लाख 10 हजार घन मीटर पानी था, जो 2021 में बढ़कर 1 करोड़ 62 लाख घन मीटर हो गया है। इसका मतलब है कि 53 वर्षों में इस झील में पानी की मात्रा में लगभग 767.77 प्रतिशत की वृद्धि हुई है।
ग्लेशियरों का पिघलना और आपदाओं का खतरा
वसुंधरा ग्लेशियर के पिघलने और झील के आकार के बढ़ने के साथ-साथ इलाके में आपदाओं के आने का खतरा बढ़ गया है। वैज्ञानिकों का कहना है कि यदि यह झील टूटती है तो इसके कारण वह क्षेत्र भारी तबाही का सामना कर सकता है। ISRO के आंकड़ों के मुताबिक, उत्तराखंड में कुल 13 संवेदनशील ग्लेशियर झीलों को चिह्नित किया गया है, जिनमें से वसुंधरा झील भी शामिल है। यह स्थिति खासकर मानसून के दौरान ज्यादा डरावनी हो जाती है, जब इन झीलों के पानी का बहाव अचानक बढ़ सकता है, जैसा कि केदारनाथ और ढौलीगंगा जैसी आपदाओं में हुआ था।
वैज्ञानिकों की टीम द्वारा निरीक्षण और रिपोर्ट तैयार करना
वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी की टीम ने हाल ही में वसुंधरा झील का निरीक्षण किया है और अब वे इस झील की वर्तमान स्थिति पर रिपोर्ट तैयार कर रहे हैं। इस टीम में वाडिया इंस्टीट्यूट के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. मनीष मेहता भी शामिल हैं। उनका कहना है कि यह रिपोर्ट जल्द ही संबंधित अधिकारियों को सौंपी जाएगी, जिसके बाद इस झील पर भविष्य में संभावित आपदाओं के बारे में और कोई कदम उठाया जा सकेगा।
पिछले कुछ वर्षों में ग्लेशियर झीलों की टूटन से हुई आपदाएँ
ग्लेशियर झीलों के टूटने से उत्तराखंड में पहले भी कई बड़ी आपदाएँ हो चुकी हैं। 2013 में केदारनाथ घाटी में चोराबाड़ी ग्लेशियर झील का पानी अचानक टूटने से एक भयंकर बाढ़ आई थी, जिसमें लगभग 6,000 लोग अपनी जान गंवा बैठे थे। इसी तरह, फरवरी 2021 में चमोली जिले में नंदा देवी ग्लेशियर के एक हिस्से के टूटने से ढौलीगंगा में बाढ़ आई थी, जिसमें 206 से ज्यादा लोग मारे गए थे। इसके अलावा, 2023 में सिक्किम में ल्होनक झील के टूटने से भी भारी तबाही मची थी। इन घटनाओं से यह साफ हो जाता है कि ग्लेशियर झीलों के टूटने से कितना बड़ा खतरा हो सकता है।
राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण की चिंता
राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (NDMA) लगातार राज्य सरकारों से ग्लेशियर झीलों की निगरानी करने की अपील कर रहा है। एनडीएमए का मानना है कि इन झीलों में हो रहे परिवर्तन को ध्यान में रखते हुए, हर राज्य को इन्हें निरंतर ट्रैक करना चाहिए और भविष्य में इनसे होने वाली किसी भी आपदा से बचने के लिए ठोस कदम उठाने चाहिए। उत्तराखंड सरकार ने भी इस दिशा में कदम उठाए हैं, लेकिन अभी तक वसुंधरा झील के अलावा अन्य झीलों का विस्तृत निरीक्षण नहीं किया गया है।
भविष्य में क्या कदम उठाने की आवश्यकता है?
उत्तराखंड में बढ़ते ग्लेशियर पिघलने और झीलों के आकार में वृद्धि के कारण आने वाली आपदाओं को रोकने के लिए सख्त कदम उठाए जाने की आवश्यकता है। राज्य और केंद्र सरकारों को ग्लेशियर झीलों की निरंतर निगरानी करनी चाहिए और वैज्ञानिक तरीके से उनके आकार और पानी की मात्रा का विश्लेषण करना चाहिए। साथ ही, इन झीलों के आसपास के क्षेत्रों में बसे लोगों को जागरूक करना और आपातकालीन प्रबंधन योजना तैयार करना भी आवश्यक है।