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Uttarakhand की तीन जेलों से कम होगी कैदियों की भीड़, सुप्रीम कोर्ट के आदेश से बीएनएनएस की नई धारा लागू, ये शर्तें रहेंगी प्रभावी

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Uttarakhand: सुप्रीम कोर्ट के आदेश से उत्तराखंड की तीन प्रमुख जेलों में कैदियों की भीड़ कम होने की उम्मीद जताई जा रही है। देहरादून, हल्द्वानी और हरिद्वार की जेलों में कैदियों की संख्या उनकी क्षमता से कहीं अधिक है, और इसी कारण से वहां की जेल व्यवस्थाओं पर काफी दबाव है। अब सुप्रीम कोर्ट ने जेलों में बंद उन विचाराधीन कैदियों की जमानत के आदेश दिए हैं, जो अपने मामलों में अधिकतम सजा का एक-तिहाई हिस्सा जेल में बिता चुके हैं। हालांकि, यह लाभ उन कैदियों को नहीं मिलेगा जिनके अपराध में आजीवन कारावास या मौत की सजा का प्रावधान है।

Uttarakhand की तीन जेलों से कम होगी कैदियों की भीड़, सुप्रीम कोर्ट के आदेश से बीएनएनएस की नई धारा लागू, ये शर्तें रहेंगी प्रभावी

बीएनएनएस की धारा 479 के तहत मिलेगा लाभ

यह प्रावधान भारत के नए कानून, भारतीय नागरिक न्याय संहिता (BNNS) की धारा 479 के अंतर्गत आता है। सुप्रीम कोर्ट ने यह आदेश पुराने कैदियों पर भी लागू करने का आदेश दिया है। इसके तहत, जेल अधीक्षकों को निर्देश दिया गया है कि वे अपने-अपने जेलों में बंद विचाराधीन कैदियों की सूची तैयार करें, जिन्होंने अपनी सजा का एक-तिहाई हिस्सा जेल में बिताया है। इन कैदियों की जमानत की प्रक्रिया को जिला अदालत में आगे बढ़ाने के आदेश दिए गए हैं।

जेलों में कैदियों की स्थिति

उत्तराखंड की जेलों में कैदियों की भीड़ एक गंभीर समस्या बनी हुई है। देहरादून जिला जेल की क्षमता 580 कैदियों की है, लेकिन वर्तमान में वहां 900 से अधिक विचाराधीन कैदी और 369 सजा प्राप्त कैदी बंद हैं। इसी प्रकार, हल्द्वानी जिला जेल की क्षमता 635 कैदियों की है, लेकिन वहां 1300 विचाराधीन और 140 सजा प्राप्त कैदी बंद हैं। हरिद्वार की जिला जेल में 888 कैदियों की क्षमता है, लेकिन वहां 684 विचाराधीन और 566 सजा प्राप्त कैदी बंद हैं।

जेलों में क्षमता से अधिक कैदियों के रहने से जेल प्रबंधन और कैदियों के जीवन पर नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है। विचाराधीन कैदियों को कई बार अनावश्यक रूप से लंबे समय तक जेल में रहना पड़ता है, जबकि उनका दोष अभी साबित नहीं हुआ होता है।

पुराने कानून के तहत लाभ में बदलाव

पुराने कानून, दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) के अंतर्गत यह लाभ तब मिलता था, जब कैदी अपनी सजा का आधा हिस्सा जेल में बिता लेते थे। लेकिन अब सुप्रीम कोर्ट की डबल बेंच ने केंद्रीय सरकार की सहमति से यह निर्देश जारी किए हैं कि नए कानून के प्रावधान का लाभ पुराने मामलों के कैदियों को भी मिलना चाहिए। इस नए प्रावधान के अनुसार, यदि कैदी ने अपनी सजा का एक-तिहाई हिस्सा जेल में बिता लिया है, तो उसे जमानत पर रिहा किया जाएगा।

कैदियों को मिलेगा राहत

सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश से उत्तराखंड की जेलों में विचाराधीन कैदियों की संख्या में कमी आएगी और इससे जेलों के प्रबंधन को भी राहत मिलेगी। इसके साथ ही, कैदियों को भी मानवीय अधिकारों का सम्मान मिलेगा। कई विचाराधीन कैदी जो अपने मामले की सुनवाई की प्रतीक्षा में सालों से जेल में बंद हैं, उन्हें अब जल्द ही राहत मिलने की संभावना है।

जेल अधिकारियों की प्रतिक्रिया

जेल अधीक्षकों को सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश के बाद निर्देश दिए गए हैं कि वे उन विचाराधीन कैदियों की सूची तैयार करें, जिन्होंने अपनी सजा का एक-तिहाई हिस्सा जेल में बिताया है। जेल अधिकारियों के अनुसार, यह आदेश लागू करने के लिए कार्यवाही शुरू हो चुकी है और जल्द ही संबंधित कैदियों को जमानत पर रिहा करने की प्रक्रिया शुरू की जाएगी।

डीआईजी जेल, दधी राम के अनुसार, “सुप्रीम कोर्ट के आदेश के आधार पर सभी जेल अधीक्षकों को निर्देश जारी कर दिए गए हैं। कैदियों की सूची तैयार की जा रही है, जिसके आधार पर आगे की कार्रवाई की जाएगी।”

विचाराधीन कैदियों की दशा

उत्तराखंड की जेलों में कैदियों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है और सबसे ज्यादा परेशानी उन कैदियों को होती है जो विचाराधीन हैं। ऐसे कैदी जिनका अपराध अभी साबित नहीं हुआ है, वे सालों तक जेल में रहकर अपनी जिंदगी के महत्वपूर्ण साल गवां देते हैं। यह स्थिति न केवल मानवीय दृष्टिकोण से अनुचित है, बल्कि कैदियों के मौलिक अधिकारों का भी उल्लंघन है।

एक प्रमुख आपराधिक अधिवक्ता, आर.एस. राघव का कहना है, “जेलों में क्षमता से अधिक कैदियों का रहना एक गंभीर समस्या है। सबसे बुरी बात यह है कि कई लोग जो अंततः निर्दोष साबित होते हैं, उन्हें सालों तक जेल में रहना पड़ता है। इस अवधि की कोई भरपाई नहीं की जा सकती। सुप्रीम कोर्ट का आदेश कैदियों को बहुत राहत देगा।”

जेलों में मानवाधिकार और सुप्रीम कोर्ट का निर्णय

मानवाधिकार संगठनों ने हमेशा से यह मुद्दा उठाया है कि जेलों में क्षमता से अधिक कैदियों को रखना और विशेषकर उन कैदियों को, जिनका दोष साबित नहीं हुआ है, यह उनके मौलिक अधिकारों का हनन है। सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश इन संगठनों के प्रयासों की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम माना जा रहा है।

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