Indias First Sal Nursery: दिल्ली-देहरादून एक्सप्रेसवे के लिए काटे गए 11 हजार पेड़ों की कमी को पूरा किया जाएगा
Indias First Sal Nursery: भारत में विकास की तेजी से बढ़ती राह पर चलते हुए, विकास बनाम विनाश की बहस हमेशा होती रहती है। विशेष रूप से सड़क निर्माण जैसे बड़े परियोजनाओं में, विकास और विनाश का मुद्दा प्रमुखता से सामने आता है और अक्सर विकास को इसके लिए कीमत चुकानी पड़ती है। इसी कड़ी में दिल्ली-देहरादून एक्सप्रेसवे के निर्माण में 12 किलोमीटर लंबे ऊंचे मार्ग के लिए 11 हजार से अधिक पेड़ों को काटना पड़ा।
जब बात साल के पेड़ों की आई, तो मशीनरी की चिंता और भी बढ़ गई, क्योंकि साल के पेड़ों का रोपण करना लगभग असंभव माना जाता था। इस स्थिति में, कार्यान्वयन एजेंसी राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण (NHAI) ने इस चुनौती को स्वीकार किया और वन अनुसंधान संस्थान (FRI) को एक करोड़ रुपये देकर साल नर्सरी तैयार करने का कार्य सौंपा। जून 2024 से चल रहे इस काम में FRI ने अब तक लगभग 15 हजार साल के पौधे तैयार कर लिए हैं।
साल के पौधों का रोपण: एक चुनौती
FRI के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. दिनेश कुमार के अनुसार, साल के पौधों का रोपण करना काफी कठिन है। इसकी वजह है कि सर्दियों में ठंड और गर्मियों में उच्च तापमान इसकी वृद्धि को प्रभावित करते हैं। बारिश के मौसम में, साल के पौधों को अधिक पानी से बचाना आवश्यक होता है। यही कारण है कि देश में आज तक साल का सफल रोपण नहीं किया जा सका। लेकिन FRI ने इस चुनौती को स्वीकार किया है और साल नर्सरी तैयार करने के लिए सभी प्रयास कर रहा है।
विभिन्न पर्यावरणीय परिस्थितियों में पौधे उगाना
डॉ. दिनेश कुमार के अनुसार, साल के पौधों को बीजों से उगाया जा रहा है। यह सुनिश्चित किया जा रहा है कि साल के पौधे विभिन्न पर्यावरणीय परिस्थितियों के अनुसार विकसित हों, ताकि साल के पौधों का ऐसा नर्सरी तकनीक विकसित किया जा सके, जो साल के रोपण के क्षेत्र में क्रांतिकारी बदलाव ला सके। वन वैज्ञानिकों के अनुसार, साल के जंगलों में लाखों साल के पौधे बीजों से उगते हैं, लेकिन केवल कुछ ही पेड़ बन पाते हैं। लेकिन जब FRI द्वारा नर्सरी तकनीक विकसित की जाएगी, तो हर साल का जंगल इससे लाभान्वित हो सकेगा।
साल के जंगलों में बढ़ती खाली जगहें
FRI के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. दिनेश ने बताया कि समय के साथ साल के जंगलों में खाली जगहें बढ़ती जा रही हैं। यह नए पौधों की अपेक्षित वृद्धि की कमी के कारण हो रहा है, क्योंकि जब साल के पेड़ों की उम्र खत्म होती है, तो नए पौधों का विकास नहीं हो पाता।
नर्सरी के लिए आवश्यक भूमि
जब साल के पौधों की नर्सरी तैयार हो जाएगी, तो उन्हें वन भूमि में रोपित किया जाएगा। इसके साथ ही, FRI उनकी देखभाल भी करेगा। इसके लिए, वैज्ञानिकों ने उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश वन विभाग से पांच हेक्टेयर वन भूमि की मांग की है। पहले चरण में, FRI 20 हजार पौधों का रोपण करने की योजना बना रहा है।
NGT में पेड़ कटाई का मामला
दिल्ली-देहरादून एक्सप्रेसवे के ऊंचे मार्ग के लिए साल के पेड़ों की कटाई के खिलाफ पर्यावरण संरक्षण के लिए काम करने वाली विभिन्न संगठनों ने विरोध किया। यह मामला राष्ट्रीय हरित अधिकरण (NGT) में पहुंचा और जब NGT ने कटने वाले पेड़ों के स्थान पर नए पौधे रोपने का आदेश दिया, तो NHAI ने यह कहते हुए मना कर दिया कि देश में साल के पेड़ों के रोपण की तकनीक उपलब्ध नहीं है। इसके बाद, FRI के माध्यम से नर्सरी विकसित करने की योजना पर आगे बढ़ने का निर्णय लिया गया, फिर साल के पेड़ों को काटने की अनुमति दी गई।
उत्तर प्रदेश में साल के पौधों की समस्या
उत्तर प्रदेश में साल के पौधों को पेड़ में बदलने का सफल प्रयोग किया गया, लेकिन बाद में यह वन विभाग के लिए समस्या बन गया। बस्ती, गोरखपुर, गोंडा जैसे क्षेत्रों में वन विभाग ने साल के पौधों को रोपित किया और कई लोगों को वन क्षेत्र में रहने की अनुमति दी ताकि निगरानी में कमी न आए। इससे बेहतर परिणाम भी मिले, लेकिन बाद में, जो लोग वन क्षेत्रों में रह रहे थे, वे वहां से जाने को तैयार नहीं थे। इसलिए, यह माध्यम वहीं पर बंद कर दिया गया।
इस प्रकार, भारत में साल नर्सरी की स्थापना एक महत्वपूर्ण कदम है, जो न केवल पेड़ की कटाई के कारण होने वाले पर्यावरणीय नुकसान को कम करने में सहायक होगी, बल्कि यह वनस्पति के संरक्षण और वृद्धि में भी सहायक सिद्ध होगी। FRI की यह पहल निश्चित रूप से आने वाले समय में न केवल दिल्ली-देहरादून एक्सप्रेसवे बल्कि अन्य विकासात्मक परियोजनाओं में भी एक मॉडल स्थापित करेगी।
इस पहल का उद्देश्य यह है कि आने वाले समय में साल के पेड़ों की कमी को पूरा किया जा सके और विकास एवं पर्यावरण संरक्षण के बीच संतुलन बनाए रखा जा सके। यह आवश्यक है कि सरकार और स्थानीय प्रशासन इस तरह की पहलों को प्रोत्साहित करें और उनकी सफलता के लिए आवश्यक संसाधन उपलब्ध कराएं। अगर यह प्रयास सफल होता है, तो यह न केवल उत्तराखंड बल्कि पूरे देश के लिए एक उदाहरण बनेगा कि कैसे विकास और पर्यावरण संरक्षण को एक साथ चलाया जा सकता है।